कर्बला का पैगाम

 कर्बला का पैगाम

जिस तरह इबराहीम (अलैहि०) ने अपने रब की रजा के लिए अपने बेटे इस्माईल (अ०) की गर्दन पर छुरी रख दी थी और अल्लाह का क़ुर्ब (नज़दीकी) हासिल करने के लिए अपने जज़्बात और एहसासात की परवाह किये बग़ैर अपने बेटे तक को क़ुर्बान करने के लिए तैयार हो गए थे, उसी तरह दीन में मामूली इनहिराफ़ (तब्दीली) को बर्दाश्त न करते हुए हज़रत हुसैन (र०) ने उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई यहाँ तक कि कर्बला के मैदान में शहीद हो गए।

1400 साल गुज़रने के बाद भी कर्बला के शहीदों  की अज़मत को याद किया जाता है, यहाँ तक कि ग़ैर-मुस्लिम हज़रात ने भी उनकी अज़मत को तस्लीम किया है। 
लेकिन 

क्या हज़रते-हुसैन (रज़ि०) की शहादत की अज़मत का एतिराफ़  करते रहना ही हमारे लिए काफ़ी है? 
 क्या उनको मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से ख़िराजे-अक़ीदत पेश करते रहने से हमारे ऊपर के फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं? 
क्या कर्बला के शहीदों पर ढाए गए मज़ालिम पर मातम करके और उनकी शहादत की रौशनी में अपनी ज़िन्दगी के लिए कोई राहे-अमल (कार्यशैली) मुतैयन न करके हम कर्बला के शहीदों से सच्ची अक़ीदत रखने वाले मोमिन कहलाने के हक़दार हो सकते हैं?....... नहीं! हरगिज़ नहीं!!

जारी

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